बढ़ई और चिड़िया | केदारनाथ सिंह
कभी कभार दिख जाती है गौरेया अपना अस्तित्व बचाते हुए। जब कभी आंगन में फुदकती हुई दिख जाती थी गौरेया, उसका ही उदाहरण देते हुए मां अपनी बेटियों को डांटते हुए कहती थी की "क्या चिड़िया की तरह फुदकती रहती है हमेशा?" इसी आशय पर केंद्रित यह हिन्दी कविता 'बढ़ई और चिड़िया' है।
बढ़ई और चिड़िया
वह लकड़ी चीर रहा था
कई रातों तक
जंगल की नमी में रहने के बाद उसने फैसला किया था
और वह चीर रहा था
उसकी आरी कई बार लकड़ी की नींद
और जड़ों में भटक जाती थी
कई बार एक चिड़िया के खोंते से
टकरा जाती थी उसकी आरी
उसे लकड़ी में
गिलहरी के पूँछ की हरकत महसूस हो रही थी
एक गुर्राहट थी
एक बाघिन के बच्चे सो रहे थे लकड़ी के अंदर
एक चिड़िया का दाना गायब हो गया था
उसकी आरी हर बार
चिड़िया के दाने को
लकड़ी के कटते हुए रेशों से खींच कर
बाहर लाती थी
और दाना हर बार उसके दाँतों से छूट कर
गायब हो जाता था
वह चीर रहा था
और दुनिया
दोनों तरफ
चिरे हुए पटरों की तरह गिरती जा रही थी
दाना बाहर नहीं था
इस लिए लकड़ी के अंदर जरूर कहीं होगा
यह चिड़िया का ख्याल था
वह चीर रहा था
और चिड़िया खुद लकड़ी के अंदर
कहीं थी
और चीख रही थी।
– केदारनाथ सिंह
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